जल का संरक्षण करें एवं सूखी होली खेलें ||
होली की मंगलकामनाएँ || जल का संरक्षण करें एवं सूखी होली खेलें ||
होली-उद्देश्य और शिक्षा :
होलास्ति समतापर्वस्ताद्दिनेऽन्योन्यस्य वै ।
असमता ऽ सुरत्वस्य दाहः कार्यो होलिकावत्॥ १॥
होली समता का त्यौहार है । उस दिन निश्चय ही आपस की असमता रूपी असुरता का होली की तरह दाह करना चाहिए ।
कमप्यत्र समानेऽस्मिन्प्रभेदाज्ज्ान्मलिङ्गयोः ।
नोच्यं नीचं च मन्तव्यं प्रभोरेकस्य सन्ततौ॥२॥
जन्म और लिंग के प्रभेद के कारण इस समान और एक प्रभु को सन्तति में किसी को भी ऊँचा और नीचा नहीं मानना चाहिये ।
गुणकर्मस्वभावानां कृत्रिमभेदेन मानवाः ।
जायन्ते लिंग जातिभ्यां नीचाश्चोच्चास्तु न वस्तुतः ॥३॥
गुण, कर्म औ स्वभाव की कृत्रिम भिन्नता से मनुष्य उच्च और नीच बनते हैं, लिंग और जाति से नहीं । वैसे वास्तव में कोई भी उच्च और नीच नहीं होता ।
दुरीकुर्वन्षिमतां विभेदानां प्रयत्न्तः ।
आत्मीयत्वमेकतां च स्वीकुर्यात्स्वात्मवत्तया॥४॥
भेद-प्रभेदों की विषमता को दूर हटाते हुए एकता और आत्मीयता (अपनेपन) को अपनाना चाहिए ।
निन्दितं चार्थिकं लोके विषमत्वमसङ्गतम् ।
प्राप्तव्यो निखिलैस्तत्र चावसरस्तुल्योचतः॥५॥
संसार में आर्थिक विषमता, असंगत और निन्दित है । इस जगती-तल में सभी को (चाहे गरीब हो या अमीर) समान एवं उचित अवसर मिलने चाहिये ।
भूत्वा भीरुः दुर्बलो वा दीनस्तिष्ठन्ने मानवः ।
नृसिंहवच्च निर्भयो वीरो जीवेदिह सदा॥ ६॥
दीन, दुर्बल और डरपोक होकर मनुष्य को नहीं रहना चाहिए । सर्वदा इस संसार में नृसिंह की तरह निर्भय और वीर का जीवन जिये ।
धूलिं च मातृभूमेस्तु मस्तके धारयन्ति ये ।
सदैव तां च ध्यायन्ति नरा धन्यजीवनः॥ ७॥
जो मनुष्य मातृभूमि की धूलि को मस्तक पर धारण करते अर्थात् बढ़ाते हैं ओर सदा उस मातृभूमि का ध्यान रखते अर्थात् उसके लिये त्याग करते हैं, वे मनुष्य धन्य जीवन वाले अर्थात् सौभाग्यशाली हैं ।
वैमनस्रूं दुर्भावत्वं ज्वालयेच्य समूलतः ।
समानत्वेन प्रेम्णा च सानंदं निवसेदिह॥ ८॥
द्वेष और दुर्भाव को जड़ सहित जला देना चाहिए । संसार में समानता से और प्रेम से आनन्दपूर्वक रहना चाहिए ।
उचितमेव र्कत्तव्यं कर्मात्र खलु सर्वदा ।
जनकस्याप्यनुचितं चादेश कुर्यान्नैव हि॥ ९ ॥
संसार में सदा उचित कर्म ही निश्चय रूप से करना चाहिए । पिता की भी अनुचित आज्ञा अर्थात् बात को नहीं मानना चाहिये ।
प्रथमोऽस्ति समाजस्य चाधिकारो हि स्वार्जित ।
यज्ञावशिष्टमितिच मत्वोपभुञ्जीत स्वयम् ॥ १०॥
अपनी कमाई में समाज का पहला अधिकार है । शेष को यज्ञावशिष्ठ है, यह मानकर स्वयं उपभोग में लाना चाहिये ।
होली का संदेश :
अनावश्यक और हानिकारक वस्तुओं को हटा देने और मिटा देने की हिन्दूधर्म में बहुत ही महत्त्वपूर्ण समझा गया है और इस दृष्टिकोण को क्रियात्मक रूप देने के लिए होली का त्यौहार बनाया गया है । रास्तों में फैले हुए कांटे, शूल, झाड़ झंखाड़, मनुष्य समाज की कठिनाइयों को बढ़ाते हैं, रास्ते चलने वालों को कष्ट देते हैं, ऐसे तत्वों को ज्यों को त्यों नहीं पड़ा रहने दिया जा सकता, उनकी ओर से न आँख चुराई जा सकती है और न उपेक्षा की जा सकती है ।
इसलिए हर वर्ष होली पर लोग मिल जुलकर रास्तों में पड़े हुए कँटीले अनावश्यक झाड़ों को बटोरते हैं और उन्हें जलाते हुए उत्सव का आनन्द मनाते हैं । इसी प्रकार नाली, गड्ढे, कीचड़, धूल, कचरा आदि की सफाई करके जमी हुई गन्दगी को हटाते हैं । गली मुहल्लों के कोने-कोने को छान डाला जाता है कि कहीं गन्दगी छिपी हुई तो नहीं पड़ी है, जहाँ होता है वहाँ से उसे हटाकर दूर कर देते हैं ।
होली के त्यौहार का छिपा हुआ संदेश यह है कि जमी हुई गन्दगी को दूर करो, रास्ते में बिछे हुए कष्टदायक तत्वों को हटाओ । बाहर की गली मुहल्लों की गन्दगी को साफ करके स्वच्छता और शुद्धता का वातावरण उत्पन्न करना आवश्यक है अन्यथा क्षेत्र में ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ यह गंदगी विकृत रूप धारण करके चेचक आदि बीमारियों को और भी अधिक बढ़ावा दे सकती है । सफाई का यह बाहरी दृष्टिकोण हुआ भीतरी सफाई करना, मानसिक दोष र्दुगुणों को हटाना भी इस प्रकार आवश्यक है अन्यथा अनेक मार्गों के असंख्य प्रकार के अनिष्ट होने की सम्भावना है ।
रास्ते में काँटे आते रहने का नियम प्रकृति प्रदत्त है । यदि काँटे सामने न आवें, विघ्न-बाधाओं का अस्तित्व न रहे तो मनुष्य की जागरूकता, क्रियाशीलता, चैतन्यता और विचारकता नष्ट हो जायेगी, रगड़ में वह शक्ति है कि हथियार को तेज बनाती है, यदि हथियार घिसा न जाये तो वह कुन्द हो जायेगा और जंग लगकर कुछ समय बाद वह निकम्मा बन जायेगा । मनुष्य जीवन में रगड़ और संघर्ष की बड़ी भारी आवश्यकता है अन्यथा जीवित रहते हुए भी मृत अवस्था के दृश्य देखने पड़ेगें ।
जो जातियाँ अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विकृत्तियों को संघर्षपूर्वक हटाती रहती हैं, वे जीवित रहती हैं और जो भाग्य भरोसे शुतुर मुर्ग की तरह बालू में मुँह गाढ़कर निश्चित एवं निष्क्रिय बनती हैं, वे गरीबी, गुलामी, बीमारी, बेइज्जती आदि के दुःख भोगती हुई नष्ट हो जाती हैं ।
हिन्दू धर्म जीवित और पुरुषार्थी जाति का धर्म है । उसका हर एक त्यौहार जागरूकता ओर क्रियाशीलता का सन्देश देता रहता है । होली का सन्देश यह है कि भीतरी और बाहरी गन्दगी को ढूँढ़-ढूँढ़कर साफ कर डालें और चतुर्मर्खी पवित्रता की स्थापना करें एवं मानसिक सामाजिक राजनैतिक विकृत विकारों के कंटक जो रास्ते में बिछे हुए हैं उन्हें सब मिल जुलकर ढूँढ़-ढूँढ़कर लावें और उनमें आग लगाकर उत्सव मनावें । होली मनाने का यही सच्चा तरीका है । अश्लील अपशब्द बकना, कीचड़, मिट्टी मनुष्यों पर फेंकना यह तो पशुता का चिन्ह एवं असभ्यता है इससे तो दूर ही रहना चाहिए ।
होली का त्यौहार कैसे मनाया जाय?
किसी भी जाति के त्यौहार और उत्सव वहाँ के इतिहास और परम्परा के परिचायक होते हैं । उनसे उस जाति के ओज, शौर्य और अन्य गुणों का भी अनुमान लगाया जा सकता है । पर आजकल हमारे अधिकांश देशवासी त्यौहारों के मूल-तत्व को भूलकर उनको प्रायः उल्टे-सीधे ढंग से मनाने लग गये हैं, जिससे लाभ के स्थान पर प्रायः हानिक ही होती जान पड़ती है ।
समाज में विशेष रूप से चार श्रेणियों के व्यक्ति दिखलाई पड़ा करते हैं । पहले प्रकार के व्यक्ति वे हैं, जो अपने स्वार्थ का ध्यान बहुत कम रखते हैं और अपनी शक्ति तथा साधनों का उपयोग संसार के हित के लिये करते हैं । दूसरी श्रेणी के मनुष्यों में शक्ति की अधिकता होती है । और वे उस बल का प्रयोग सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों के दमन में करते हैं । तीसरे व्यक्ति वे होते हैं, जो ज्ञान और शारीरिक शक्ति का अभाव होते हुये भी आर्थिक दृष्टि से सफल होते है, वे कृषि, पशु पालन और व्यापार द्वारा उचित ढंग से धन कमाकर समाज के अनेक अभावों को दूर करने में सहायक बनते हैं । चौथी श्रेणी उन मनुष्यों की होती है, जो ज्ञान, बल ओर धन से रहित होते हुये शारीरिक श्रम से समाज की अत्यन्त उपयोगी सेवा करते हैं । इन चारों प्रकार के मनुष्यों को हम भारतीय समाज के प्राचीन संगठन के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम से पुकार सकते हैं ।
ये चारों श्रेणियों के व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज सेवा करते एक-दूसरे को सहयोग व सहायता प्रदान करते रहते थे । अपने र्कत्तव्यों के स्मरणार्थ प्रत्येक श्रेणी का एक-एक त्यौहार भी नियत किया गया था । इनमें से श्रावणी ब्राह्मणों का त्यौहार है जिस प्रकार वे किसी पवित्र जलाश्य के तट पर अपने धार्मिक र्कत्तव्यों का स्मरण करते हुए नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि उस वर्ष द्विजत्व के कर्तव्य के पालन व सद्ज्ञान के प्रचार में दत्तचित्त रहेंगे । दशहरा क्षत्रियों का त्यौहार माना गया था । इस दिन पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बल-पौरुष का अभ्यास कर हथियारों को साफ करके काम के लायक बनाते थे । जिसमें वे अपने आर्थिक कारोबार का सिंहावलोकन करके आगामी वर्ष के लिये बजट और योजना पर विचार करते थे । चौथा होली का त्यौहार है जिसमें श्रमजीवी वर्ग की ओर से सेवा और समानता के आदर्श की घोषणा की जाती थी ।
वर्तमान समय में यद्यपि सभी त्यौहारों में अनेक दोष घुस गये हैं और उनका आदर्श स्वरूप अधिकांश में लोप हो गया है, परन्तु होली का रूप सबसे अधिक बिगड़ा है । वैसे इस त्यौहार के मनाने की जो प्राचीन परिपाटी प्रतीक रूप में अब भी प्रचलित है, उससे प्रकट होता है कि यह एक विशुद्ध सामूहिक यज्ञ है । इस सम्बंध में निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-
(१) एक मास पूर्व शमी की लकड़ी गाड़कर फाल्गुण सुदी १५ को लकड़ी, कंडे इकट्ठे करके जलाना यज्ञ का ही रूप है ।
(२) जलाने से पूर्व आचार्य पंडित द्वारा उसका पूजन होना और गाँव के मुखिया द्वारा पूजन करवाना यह यज्ञ के यजमान बनाये जाने का चिह्न है ।
(३) होली में नारियल के लच्छें लपेटकर डालना यज्ञ की पूर्णाहुति में नारियल चढ़ाने का चिह्न है ।
(४) इसके पूजन में मिठाई गुड़ आदि चढ़ाकर बच्चों में बाँटना यज्ञ में प्रसाद वितरण का लक्षण है ।
(५) इसकी लपटों में, अग्नि में हविपात्र की बालों को पकाकर खाना भी यज्ञ का ही एक लक्षण है ।
(६) होली एक ऐसा त्यौहार है जो ऋतुराज वसंत में आता है । इसी समय सर्दी का अन्त और ग्रीष्म का आगमन होता है । इस समय ऋतु-परिवर्तन से चेचक के रोग का प्रकोप होता है । इस संक्रामक रोग से बचने के लिये पुराने समय में टेसू के फूलों का रंग बनाकर एक-दूसरे पर डालने की प्रथा चलाई गई थी और यज्ञ की सामग्री में भी इन्हीं फूलों की अधिकता रखी गई थी जिससे वायु में उपस्थित रोग के कीटाणु नष्ट हो जायें । पर आज उस टेसू के लाभदायक रंग के स्थान पर हानिकारक विदेशी रंगों का प्रयोग किया जाता है और लोग उनके चटकीलेपन को पसन्द भी करते हैं । अब वह प्रथा बहुत विकृत हो गई है और लड़के तथा नवयुवक बुरे-बुरे रंग सर्वथा अनजान और भिन्न समाज वालों पर भी डाल देते हैं, जिससे अनेक बार खून-खराबी की नौबत तक आ जाती है और रंग की होली के बजाय खून की होली दिखलाई पड़ने लगती है । यह मूर्खता की पराकाष्ठा है, और ऐसे लोग-त्यौहार मनाने की बजाय देश तथा धर्म की हत्या करते हैं ।
(७) होली को पूर्वजों ने एक सामूहिक सफाई के त्यौहार के रूप में भी माना था । जैसे दिवाली पर प्रत्येक व्यक्ति निजी घर की लिपाई, पुताई और स्वच्छता करता है, उसी प्रकार होली पर समस्त ग्राम या कस्बे की सफाई का सामूहिक कार्यक्रम रखा जाता था । वसंत ऋतु में सब पेड़ों के पत्ते झड़-झड़ कर चारों और फैल जाते है, बहुत कुछ कूड़ा कबाड़ भी स्वभावतः इकट्ठा होता है, उस सबकी सफाई होली में कर दी जाती थी । पर अब लोग उस उद्देश्य को भूलकर दूसरों पर कीचड़ और धूल फेंकने को त्यौहार का अंग समझ बैठे हैं । इससे उल्टा लोगों का स्वाथ्य खराब होता है और अनेक बार आँख आदि में चोट भी लग जाती है ।
(८)प्राचीन समय में होली प्रेम भाव को बढ़ाने वाला त्यौहार था । अगर वर्ष भर में आपस में कोई-झगड़े या मनमुटाव की बात हो गई हो तो इस दिन उसे भुलाकर सब लोग प्रेम से गले मिल लेते थे और पुरानी गलतियों के लिए एक-दूसरे को क्षमा करके फिर से मित्र सहयोगी बन जाते थे अब भी इस दिन एक-दूसरे के यहाँ मिलने को जाते हैं, पर प्रायः नशा करके गाली बककर झगड़ा पैदा कर लेते हैं, जो होली के उद्देश्य के सर्वथा प्रतिकूल है ।
वास्तव में होली का त्यौहार हमारे समाज में सबसे अधिक सामूहिकता का परिचायक है और यदि इसे समझदारी के साथ मनाया जाय तो यह हमारे लिये अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है । जिस प्रकार होली के पौराणिक उपाख्यान में बतलया गया है कि सच्चे भक्त प्रहलाद् ने असत्य और अन्याय का प्रतिरोध करके सत्य की रक्षा की थी और उसी की स्मृति में होली के त्यौहार की स्थापना की गई थी, उसी प्रकार हम भी यदि इस वास्तविक उद्देश्य का ध्यान रखकर होली का त्यौहार मनायें तो इस अवसर पर वर्तमान समय में होने वाली अनेक हानियों से बचकर इस त्यौहार को लोक कल्याण का एक प्रमुख साधन बना सकते हैं ।
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